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हिन्दुस्तान की राजनीति में रोज नए गुल खिलते दिखाई पड़ते है कभी क्षेत्रवाद के नाम पर हिन्दुस्तान को बांटा जाता है तो सम्प्रदायवाद के नाम पर सत्ता शीर्ष पर काबिज होने के लिए रोज नए हथकंडे हम ब्रम्हपुत्र जल विवाद की बात तो करते है पर कावेरी जल विवाद नहीं सुलझा पाते है क्यों की इसी पानी पर नाव चला कर सत्ताशीर्ष तक पहुंचा जा सकता है भारत का एक राज्य दुसरे भारत के राज्य से पानी नहीं बाटना चाहता या यूँ कहा जाए प्यासा रखना चाहता है तो राज ठाकरे को बिहार और यू पी से नफरत है वास्तव में नफरत राज ठाकरे को नहीं है बल्कि जनता के दिल में जो नफरत है राज ठाकरे सिर्फ उसे भुनाने का काम करते है ,अगर देश सम्प्रदाय और जातिवाद के दंश को झेल रहा है तो ये कहना बेमानी होगी की नेता देश में वैमनस्यता फैला रहे है वास्तविकता तो ये है की ये वैमनस्यता जनता के दिल में पहले से जिसकी नब्ज को भांप कर नेता सिर्फ उसमे चिंगारी लगाने का काम करते है और सत्ता का आसानी से भोग का माध्यम बनाते है शायद नक्सलवाद ,माओवाद, बोडो आन्दोलन और इनके जैसे अनेक आंदोलन सिर्फ इसी वैमनस्यता का ही नतीजा है और इसी वैमनस्यता का ही नतीजा है भारत में आजादी के इतने साल बाद भी विकास मुद्दा नहीं बन सका है लेकिन हद तो तब हो जाती है जब संप्रदाय या जाति में बंटा भारत भगवान और महापुरुषों को भी जाति और सम्प्रदाय में बाँट रहा है आज राम क्षत्रियों के भगवान है तो कृष्ण यादवों के परशुराम ब्राम्हणों के हो गए है अशोक महान अब सिर्फ कुश्वाहों के है तो अवंती बाई लोधियों की बाबा साहेब को दलितों ने ले रक्खा है और हर समाज अपने भगवन और महापुरुष की जयन्ती की छुट्टी चाहता है शायद अगर वोटबैंक की राजनीति में ऐसे ही चलता रहा तो एक दिन ऐसा आएगा की हिन्दुस्तान में कार्यदिवस होंगे ही नहीं आखिर भगवान और महापुरुषों को बाँट कर ये कौन सी राज नीति हो रही है और राजनीति तभी होगी जब देश होगा लेकिन शायद नेताओं को परवाह ही नहीं की इस राजनीति में देश खोता जा रहा है तेरे भगवान मेरे भगववान के चक्कर में राष्ट्रवाद पीछे रह गया है जिसके परिणाम आने वाली पीढ़ियों को अवश्य भुगतने होंगे
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